काले चश्मे का धुँधला सच
आज सुबह घूमने जाते समय मैंने काला चश्मा लगाया, तो अचानक उजली दुनिया धुँधली सी हो गई. शुरू में तो इस उजाले और अँधेरे का अंतर दिखा. लेकिन लगभग 15 मिनट बाद, काले चश्मे से दुनिया को देखते-देखते मैं भूल ही गया कि उजली दुनिया थी कैसी.

तब समझ आया कि कैसे हम एक अति पर जीते-जीते दूसरे हिस्से को भूल ही जाते हैं, और जीवन असंतुलन व पीड़ा से भर जाता है.

खाने से हर समय इतना भरे होते हैं कि उपवास का हल्कापन भूल जाते हैं.

गाड़ियों, डीजे से कान इतने लबालब रहते हैं कि शांति का संगीत ही भूल जाते हैं.

शब्दों में इतना खो जाते हैं कि निशब्द की परिभाषा ही भूल जाते हैं.

डिजिटल मित्रों में इतना उलझ जाते हैं कि जीवंत मित्रों का साथ ही भूल जाते हैं.

मोबाइल, टीवी से इतना चिपक जाते हैं कि चाँद, सूरज, तारे, हवाएँ, पेड़-पौधे इनका रहस्य ही भूल जाते हैं.

परीक्षा के अंकों से इतना आसक्त हो जाते हैं कि किताबों से ज्ञान लेना ही भूल जाते हैं.

कमाने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि जीवन का असल उद्देश्य ही भूल जाते हैं.